क्रोध, गुस्सा, आवेश, प्रज्जवलन जैसे शब्दों से आप क्या अनुमान लगाते हैं। ये बहुत साफ है कि ऐसे शब्द हमारे मन की उस अवस्था को बताते हैं, जहां हम आपा खो चुके होते हैं। हमारी बुद्धि-विवेक का ह्रास हो जाता है और हम मन के पूरी तरह नियंत्रण में आ जाते हैं। ऐसे में अक्सर आपा खो बैठने की हालत हो जाती है और अंतिम रूप से पश्चाताप के अलावे कुछ भी हाथ नहीं लगता है।
निश्चित रूप से यह एक दयनीय अवस्था होती है, जहां हम दूसरे को दुःख तो पहुंचाते ही हैं लेकिन इससे बुरी बात ये है कि इसमें अंतिम रूप से हमारा ही नुकसान होता है। व्यवहारिक जीवन में इससे बड़ा दुःख और कुछ नहीं हो सकता कि क्रोध की अवस्था में हम दूसरे को दुःख पहुंचाना चाहते हैं किंतु इसमें हमारा बहुत अधिक बिगड़ जाता है।
मानसिक संतुलन का इस तरह क्षरण कितना उचित है? भावावेश, भावातिरेक और मानसिक उद्देलन की अवस्थाएं खतरनाक होती हैं। अनियंत्रित तरीके से शरीर का रोम-रोम नकारात्मक रूप से प्रभावित होने के कारण निर्णय शक्ति खत्म हो जाती है। इस दशा में प्रायः गलत फ़ैसले हो जाते हैं, जो जीवन भर के लिए अभिशाप साबित होते हैं।
गहराई से देखा जाए तो क्रोध केवल भावातिरेक की स्थिति है। जब भी कोई डिमांड पूरी नहीं होती, अपेक्षा पर कोई खरा नहीं उतरता या फिर अहंकार को चोट पहुंचती है तब ऐसी अवस्था में क्रोध का जन्म होता है। ऊपरी तौर पर यह एक सहज-स्वाभाविक स्टेज मालूम होता है लेकिन हकीकत में ये सहजता से अलग बिल्कुल थोपी गई अवस्था है। क्रोध कभी भी सहज हो ही नहीं सकता वरन् ये अपेक्षाओं की प्रतिपूर्ति न होने का परिणाम होता है।
क्रोधाग्नि की ज्वाला भयंकरतम ज्वालाओं में शुमार है। इसका प्रभाव एकतरफा या एकपक्षीय न होकर बहुपक्षीय और बहुआयामी होता है। ये न सिर्फ कारक को नष्ट करने में सक्षम है बल्कि इसके आसपास जो भी होता है, उसे भी हानि पहुंचाने में सक्षम है। एक बार क्रोधाग्नि का शिकार बन जाने पर इससे बहुत कठिनाई से पिंड छूट पाता है।
हमें इस तथ्य पर अवश्य चर्चा करनी चाहिए कि क्रोध का वास्तविक कारण क्या है तब कहीं जाकर इससे मुक्त होने की चर्चा सार्थक होगी।
पहले ही ये बात कही जा चुकी है कि मन के दस स्तर होते हैं और हम अमूमन आरम्भिक स्तरों पर ही जीते हैं। ये छिछले स्तर गति में तीव्र होते हैं, जिस वजह से भटकाव बहुत तेज होता है। यदि किसी भी कारणवश इच्छापूर्ति में बाधा या अहंकार को ठेस पहुंचे तो प्रतिक्रिया की स्पीड भी बढ़ जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मन सहज नहीं होता बल्कि बड़े होने के क्रम में भीतर समाहित होती विविध ग्रंथियों के असर में होता है। मन को सहज भाव में पहुंचाने के लिए इसके ऊपरी स्तरों को पार करना आवश्यक है किंतु सामान्य रूप से ये संभव नहीं होता है। अब सवाल ये उठता है कि जब बालमन सहज हो सकता है तो उम्र बढ़ने के साथ उसकी सहजता क्यों समाप्त हो जाती है?
वस्तुतः सहज बोध को सबसे अधिक नुकसान वाह्य पर्यावरण से होता है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है संस्कारों और सामाजिक हालातों का मन पर गहरा असर होता चला जाता है। इच्छाओं की मात्रा में बढ़ोत्तरी होती है और उनके न पूरा होने का दुःख भी संत्रास को जन्म देता है। इसी कारण आत्मपरिष्कार और परिमार्जन में न्यूनता आने लगती है। यहीं से आरंभ होता है टकराव स्वयं से, वाह्य वातावरण से जिस कारण क्रोध की सृष्टि होने लगती है। किंतु इस क्रोध का प्राकाट्य तब होता है जबकि उसे उत्प्रेरणा मिलती है।
इस उत्प्रेरणा को जन्म देती हैं पूर्व संचित ग्रंथियां। इनमें नकारात्मकता का बाहुल्य होने की वजह से आत्ममंथन समाप्तप्राय हो जाता है। इसी क्रिया के दौरान “स्व” की ओर से ध्यान हटने की वजह से आवेश का संचय होने लगता है फलस्वरूप मात्र संक्षिप्त उत्प्रेरणा ही क्रोधाग्नि का कारण बन जाती है।
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