महामुनि मेतार्य ने कृच्छ चांद्रायण तप विधिवत सम्पन्न किया। अनुष्ठान काल में सम्पूर्ण एक मास केवल आँवला के फलों पर ही निर्वाह किया, इससे उनके शरीर में दुर्बलता तो थी किन्तु तपश्चर्या से अर्जित प्राण शक्ति और आँवले के कल्प के कारण उनके सम्पूर्ण शरीर में तेजोवलय स्पष्ट झलक रहा था।
अनुष्ठान समाप्त कर वे राजगृह की ओर चल पड़े। नियमानुसार वे दिन में एक बार किसी सद्गृहस्थ के घर भोजन ग्रहण कर लोक-कल्याण के कार्यों में जुटे रहते थे। उनकी लोक कल्याणकारी वृति देख कर मगध का हर नागरिक उनके आतिथ्य को अपना परम सौभाग्य मानता था।
आज वे राजगृह के स्वर्णकार के द्वार पर खड़े थे। स्वर्णकार कोई आभूषण बनाने के लिये स्वर्ण के छोटे-छोटे गोल, दाने बना कर ढेर करता जा रहा था। द्वार पर खड़े मेतार्य को देखा तो उसका हाथ वही रुक गया “ अतिथि देवोभव “ कहकर उसने मुनि मेतार्य का हार्दिक स्वागत किया। उनकी भिक्षा का प्रबन्ध करने के लिए जैसे ही वह अन्दर गया वृक्ष पर बैठे पक्षी उतर कर वहाँ आ गये जहाँ स्वर्णकार सोने के दाने गढ़ रहा था। उन्होंने इन दानों को अन्न समझा सो जब तक स्वर्णकार वापस लौटे सारे दाने चुग डाले और उड़कर डाली में जा बैठे।
स्वर्णकार बाहर आया और सोने के बिखरे दानों को गायब पाया तो उसके गुस्से का ठिकाना न रहा। उसने देख द्वार पर मुनि मेतार्य चुपचाप बैठे है आतिथ्य भूल गया-पूछा- आचार्य प्रवर यहाँ कोई आया तो नहीं - नहीं तात ! मेरे सिवाय और तो कोई नहीं आया मेतार्य ने सहज ही उत्तर दिया। इस पर स्वर्णकार को क्रोध और भी बढ़ गया उसने निश्चय कर लिया मेतार्य ने ही वह स्वर्ण चुरा लिया और अब यहाँ ढोंग करके बैठा है।
मेतार्य से उसने पूछा- स्वर्णकण तुमने चुराये हैं ? इस पर वे कुछ न बोले। अब तो स्वर्णकार को और भी विश्वास हो गया कि मेतार्य ही वास्तविक चोर हैं सो उसने अन्य कुटुम्बियों को भी बुला लिया और उनकी अच्छी मरम्मत की। जितनी बार पूछा जाता- तुमने स्वर्ण चुराया है- मेतार्य चुप रहते- कुछ भी न बोलते इससे उनका संदेह और बढ़ जाता।
अन्त में निश्चय किया गया कि मेतार्य के मस्तक पर गोले चमड़े की पट्टी बाँध कर चिल-चिलाती धूप में पटक दिया जाये। यही किया गया उनके मत्थे पर चमड़े की गीली पट्टी बाँध दी गई और धूप में कर दिया गया। जैसे जैसे पट्टी सूखती गई महर्षि का सिर कसता गया। शरीर पहले ही दुर्बल हो रहा था। पीड़ा सहन न हो सकी। वे चक्कर खाकर गिर पड़े। दिन उन्होंने परणन्तक पीड़ा में बिताया।
साँझ हो चली। वृक्ष पर बैठे पक्षियों ने बीट की तो वह दाने नीचे गिरे। किसी ने देखा तो कहा अरे सोने के दाने तो पक्षियों ने चुन लिये महर्षि को क्यों कष्ट दे रहे हो- स्वर्णकार हक्का बक्का रह गया। उसने दौड़कर महर्षि के माथे की पट्टी खोली- उन्हें जल पिलाया और दुःखी स्वर में पूछा-महामहिम ! आपने बता दिया होता कि स्वर्ण दाने पक्षियों ने चुगे हैं तो आपकी यह दुर्दशा क्यों होती ?
महर्षि मुस्कराये और बोले- वैसा करने से जो दंड मैंने भुगता उससे भी कठोर दंड इन अज्ञानी पक्षियों को भुगतना पड़ता। महर्षि की इस महा दयालुता पर सबको रोमाँच हो आया। स्वर्णकार बोला-जो प्राणिमात्र में अपनी तरह अपनी ही आत्मा को देखता है वही सच्चा साधु है।
अपने आपसे प्रेम करके अपनी प्रसुप्त आत्म-शक्तियों का किस प्रकार विकास किया जाये, अपने पड़ोसी अपने स्वजन सम्बन्धियों से लेकर ग्राम, नगर, प्रदेश, देश और विश्व के मानव मात्र में प्रेम भावनाओं का प्रतिरोपण करके किस प्रकार मनुष्य जीवन में स्वर्गीय परिस्थितियों का आविर्भाव किया जाये और फिर उससे भी आगे बढ़कर सृष्टि के इतर मानव प्राणियों, पेड़-पौधों तथा निर्जीव वस्तुओं तक से प्रेम-भव की घनिष्ठता स्थापित करके किस प्रकार विश्वात्मा की अनुभूति, साक्षात्कार और पूर्णानन्द की प्राप्ति सम्भव है इन नियमों की निश्चित प्रक्रियायें भले ही हमें ज्ञात न हों तो भी मानव जाति का आस्तित्व केवल मात्र प्रेम के लिये टिका हुआ है। ऐसा गाँधी जी कहा करते थे।
प्रेम की शक्ति समस्त भौतिक शक्तियों से बढ़कर है यही वह भाव है छोटे से केन्द्र जीवात्मा को विराट जगत से जोड़ते में समर्थ हो पाती है। प्रेम न होता तो सृष्टि में टकराव और संघर्ष इतना अधिक बढ़ जाता कि उसका अस्तित्व दो दिन टिकना भी असम्भव हो जाता। वैज्ञानिक मान न हो तो पृथ्वी टुकड़े-टुकड़े हो जाये। जड़ परमाणुओं को एक आकर्षण जोड़कर रखता है उसी प्रकार चेतन प्राणियों को भी एक ही आकर्षण एक ही केन्द्राभिसारी बल बाँधकर रखता है वह है प्रेम । प्रेम कला में हम कितने पारंगत हो सकते हैं उसी अंश में अपना विकास कर सकते हैं।
भौतिक आकर्षण और समान स्वार्थों की पूर्ति के लिये मेल-मिलाप में प्रेम जैसा ही आकर्षण होता है और चूँकि उसमें प्रारम्भिक प्रेम के नियमों का अस्तित्व होता है इसलिये मानव जाति भूल से उसे ही प्रेम समझने लगती है। दस प्रेम को प्रेम मानते हुये भी स्थूल और वासना जन्य ही कहा जायेगा। अदीस अबाब के मध्य में सिदिस्त के किले में वहाँ का अच्छा चिड़ियाघर है इस चिड़ियाघर संरक्षक वोकले हेतेयस ने 20 वर्षों तक लगातार शेरों के जीवन का सूक्ष्म अध्ययन किया। इस अध्ययन के दिनों में उन्होंने इन वन्य पशुओं से सम्बन्धित अनेक घटनायें ............ लित करके लिखा है कि शेर अपने बच्चों से प्यार नहीं करता कभी कभी तो वह उनको जख्मी भी कर देता है। इसके विपरीत शेर अपनी पत्नियों से बहुत प्रेम करते हैं। शेर शेरनी एक दूसरे से प्रेम करते हैं और एक दूसरे को समझते हैं। शेर यह नहीं सहन कर सकता कि शेरनी पर मक्खी भी आकर बैठे।
यह अध्ययन प्राणियों में प्रेम की जन्म-जात आकाँक्षा की प्रतीक है भले ही उसकी सीमा इतनी संकुचित हो कि शेर अपने प्रेम के बीच में बच्चों की उपस्थिति भी सहन न कर सकता हो।
भालू का स्वभाव भी कुछ ऐसा ही होता है। इसमें नर माँदा से प्रेम करता है पर अपने बच्चों से शत्रु जैसा व्यवहार करता है और मादा अपने बच्चों से इतना प्रेम करती है कि उनके लिये वह कितने ही सप्ताहों तक मांदा में छिपी पड़ी रहती है पानी तक नहीं पीती भूख मिटाना तो और भी दूर की बात रही।
मनुष्य जाति पशुओं से विकसित श्रेणी का प्रेम करती है पर उसे जागृत आत्माओं वाला प्रेम नहीं कह सकते। एक गाँव में एक बच्चा नदी के पानी में डूब रहा था किनारे और भी लोग खड़े थे पर स्वयं डूब जाने के भय से कोई कूद नहीं रहा था। उसकी माँ ने अपने को संकट में डाला और तैरना न जानते हुए भी वह पानी में कूद गई। यहाँ यदि और कोई व्यक्ति कूदकर उस बच्चे को बचता तो उसकी वह निष्काम सेवा प्रेम की उत्कृष्टता का प्रतिपादन करती माँ के लिये कर्तव्य भाव था उसे श्रेष्ठ तो कहा जा सकता है पर समस्त मनुष्य जाति की तुलना में वह साधारण प्रेम था दैवी नहीं। वह स्त्री बच्चे को बचाने के लिये आगे बढ़ती है और स्वयं डूबने लगती है तब उसका पति कूदता है और अपनी पत्नी को बचाता है। इस तरह उसने जो प्रेम प्रदर्शित किया उस प्रेम को वन्य जीवन का सा ही प्रेम कहा ज सकता है।
मनुष्य का प्रेम कुछ इसी तरह का स्वार्थ और शारीरिक सम्बन्धों की ................. तक अनुबद्ध हो जाने से हमारी आत्मिक प्रगति का द्वार बन्द हो जाता है यह हमारी लघुता का प्रतीक है प्रकृति की प्रेरणा नहीं। आत्म-चेतना की सन्तुष्टि का आधार सीमाबद्ध प्रेम नहीं हो सकता। दूसरी जागृत आत्मायें, भले ही वे अपना विकास ............. किसी क्षुद्र योनि में चला रही हो, इस सीमा को तोड़ती हैं और बताती हैं कि आत्मा के प्रेम का विस्तार किसी वर्ग, जाति और लिंग तक सीमित न होकर समस्त सृष्टि में फैली चेतना के मूल तक है उसी से सच्ची सन्तुष्टि मिल सकती है।
27 अक्टूबर 70 की जूनागढ़ (गुज.) की घटना है। यहाँ से 23 किलोमीटर दूर नखदी गाँव में कोई नव-जात शिशु को फेंक गया। उसको देखते ही चील, कौवे और सियार खाने को लपके किन्तु तभी कुत्ता वहाँ आ धमका और बच्चे की तब तक रक्षा करता रहा जब तक दूसरे लोगों ने पहुँचकर बच्चे को उठा नहीं लिया। इस बीच अन्य हिंसक जीव भी वही मँडराते रहे पर कुत्ता वहाँ से हटा नहीं।
अलीगढ़ के कस्न्ना जवाँ में एक बन्दर और कुत्ते की मैत्री विघटित भावनाओं वाले इस युग में लोगों को चुनौती देती है और बताती है कि विपरीत स्वभाव के दो पशु परस्पर प्रेम कर सकते हैं परन्तु मनुष्य परस्पर स्नेह से नहीं रह सकता, यह दोनों ही अमानव मित्र दिन-रात साथ साथ रहते हैं। विश्राम के समय बन्दर कुत्ते के जुयें बीनकर और कुत्ता बन्दर के तलुए सहलाकर अपनी प्रेम भावनाओं का आदान-प्रदान करते हैं।
अपने स्वभाव अपनी रुचि की भिन्नता के बावजूद भी यदि दूसरे जीव परस्पर प्रेम से रह सकते हैं तो बुद्धिशील मनुष्य को तो उनसे बढ़कर ही होना चाहिये। ऐसा नहीं होता तो यही लगता है कि चेतना की गहराई को जितना मनुष्य नहीं जान सका प्रेम दर्शन का जो अभ्यास मनुष्य नहीं कर सका वह दूसरे प्राणी हँसी-खुशी से कर सकते हैं। यहाँ तक कि दो शत्रु स्वभाव के जीवों में भी उत्कट मैत्री रह सकती है।
फैजावाद डिवीजन के सुलतानपुर जिला स्थित अस्पताल में एक बालक इलाज के लिये भरती किया गया है। इस का बालक 9 वर्ष पूर्व सियारों द्वारा अपहरण कर लिया गया था। नन्हें से जीव के प्रति उनकी सहज करुणा-प्रेम उमड़ा होगा तभी तो उन्होंने उसे खाने की अपेक्षा पाल-लेना उचित समझा होगा। बहुत सम्भव है सियारों में उसको खाने के लिये संघर्ष भी हुआ हो जीत इस दिव्य शक्ति कह हुई सियारों ने बच्चे को पाल लिया। उसे अपनी तरह चलना-फिरना, बोलना और खाना तक सिखाकर यह सिद्ध कर दिया कि आत्म-चेतना शरीर नहीं शरीरों से भिन्न तत्व है वही समस्त जीवों में प्रतिभासित हो रहा है इस मूल की ही सन्तुष्टि जीवन की सच्ची उपासना है।
कुछ आत्मायें बोल नहीं सकती पर प्रेम तो परावाणी है जो हाव-भाव और आँखों की चमक से व्यक्त हो जाता है उसके लिये शरीर उपादान नहीं वह व्यक्त होने के लिये आप समर्थ है। त्याग और बलिदान, सेवा और साधना ही उसके रूप हैं। यह देखने को तब मिला जब अलकनन्दा में बाढ़ आई हुई थी, गढ़वाल जिले के श्रीनगर ग्राम में बाढ़ से बचने के लिये 20-22 व्यक्ति एक बड़े पेड़ पर चढ़ गये। रात तक पानी सिमट गया तो वे नीचे उतरने लगे। लेकिन नीचे एक ............... विषधर खड़ा था और वह किसी को उतरने नहीं देता था। कोई मारने को करता तो उधर दौड़ कर भगा देता। रात इसी तरह बीती सवेरा हुआ तो साँप अपने आप चला गया और तब उन लोगों ने देखा कि वहाँ इतना गहरा दलदल था कि यदि सर्प ने न रोका होता तो उन सबकी जीवित समाधि लग जाती।
............... की मात्या इलाके की 1952 को एक घटना उससे भी विलक्षण और इस बात का प्रमाण है कि दो घनिष्ठ शत्रु भी दो घनिष्ठ मित्रों का सा प्रेमी जीवन जी सकते हैं। पति और पत्नी के सिद्धाँत भिन्न हों तो भी प्रेम का आदान-प्रदान चलते रह सकता है यह घटना उसका उसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। यहाँ कुछ दिन से एक चीता सक्रिय था उसने बहुत उत्पात मचा रखा था पर कोई उसे मार न पाता था। उनका कारण था उनकी एक बन्दर से अटूट मैत्री। ....
इस तरह का मुक्त प्रेम जो शारीरिक सुखों, इन्द्रियों के आकर्षणों जाति वर्ण और देश की सीमाओं से पर हो वही सच्चा प्रेम है। ऐसा प्रेम ही सेवा, मैत्री, करुणा, दया, उदारता और प्राणि मात्र के प्रति आत्मीयता का भाव जागृत कर तुच्छ जीवात्मा की परमात्मा से मिलाता है हमारे प्रेम का दायरा संकुचित न रहकर समस्त लोक-जीवन के प्रति श्रद्धा के रूप में फूट पड़े तो आज जो भागवत अनुभूतियाँ दुःसाध्य जान पड़ती हैं कल वही काँच के स्वच्छ दर्पण में अपने साफ प्रतिबिम्ब की तरह झलकने लग सकती है।
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